Home अपना उत्तराखंड देवभूमि उत्तराखंड की अद्भुत परंपराः महाभारतकाल की घटनाओं का होता है मंचन…

देवभूमि उत्तराखंड की अद्भुत परंपराः महाभारतकाल की घटनाओं का होता है मंचन…

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देवभूमि उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग जिले में केदारघाटी समेत अन्य क्षेत्र के गांवों से पांडवों का विशेष संबंध है। यहां आज भी ग्रामीण पांडवों को आमंत्रित करते हुए पांडव नृत्य का आयोजन करते हैं। इगास से शुरू होने वाले इस धार्मिक अनुष्ठान का आयोजन फरवरी तक होता है। पांडव नृत्य में महाभारतकाल की घटनाओं, चक्रव्यूह, कमलव्यूह, मकरव्यूह आदि का मंचन किया जाता है। कुरुक्षेत्र में महाभारत युद्ध के बाद जब पांडव स्वर्गारोहणी जाते समय उत्तराखंड के गांवों से होकर गए थे। तब वे अलकनंदा और मंदाकिनी घाटी के जिस-जिस गांव से होकर गुजरे, वहां आज पांडव लीला और पांडव नृत्य का आयोजन होता है।

कहा जाता है कि इन गांवों के लोगों को पांडवों ने अपने अस्त्र-शस्त्र सौंपे थे। तब ग्रामीणों ने पांडवों से वचन लिया था कि वे उन्हें जब भी बुलाएं, उन्हें उनके गांवों में आना होगा। इसी परंपरा के तहत पांडव आज भी इन गांवों में ग्रामीणों के न्योते पर देव रूप में अपने पश्वाओं पर अवतरित होकर आशीर्वाद देते हैं। गांवों में खरीफ  की फसल कटाई के बाद पंचांग गणना के आधार पर शुभ दिन तय कर एकादशी या उसके बाद से पांडव नृत्य के आयोजन शुरू होते हैं। पांडव नृत्य आयोजन का उद्देश्य गांव में खुशहाली, अच्छी फसल और पालतू पशुओं विशेषकर गाय को खुरपका व मुंहपका रोग से बचाना होता है।

गांवों में पांडव नृत्य सहभागिता का प्रतीक भी है। 11 दिन से डेढ़ माह तक चलने वाले इस धार्मिक आयोजन में गांवों में पहुंचने वाले अतिथियों के रहने और खाने की व्यवस्था ग्रामीणों द्वारा की जाती है। पांडव नृत्य में महाभारत युद्ध की विधाओं चक्रव्यूह, कमलव्यूह, गरुड़व्यूह, मकरव्यूह, गैंडा वध, पैंया डाली आदि लीलाओं का परंपराओं के तहत पारंपरिक वाद्य यंत्रों के साथ मंचन होता है। इस दौरान पांडव पश्वा पर अवतरित होकर ढोल दमाऊं की थाप पर 18 तालों पर नृत्य करते हैं। केदारघाटी में पांडव नृत्य परंपरा और विरासत का प्रतीक भी है। यहां के कई गांवों में पांडव नृत्य का मंचन गढ़वाली में होता है।

गुप्तकाशी निवासी एवं केदारघाटी मंडाण समिति के अध्यक्ष आचार्य कृष्णानंद नौटियाल ने महाभारत पर आधारित चक्रव्यूह और कमलव्यूह की गढ़वाली में रचना की है। लोक वाद्य यंत्रों हुड़का, डौर, थाली, ढोल-दमाऊं की थाप पर इन लीलाओं के मंचन में पात्रों द्वारा गायन व संवाद गढ़वाली में किया जाता है। वे केदारघाटी समेत जनपद के अन्य गांवों के अलावा मसूरी, दिल्ली, गाजियाबाद, फरीदाबाद में भी चक्रव्यूह का गढ़वाली में मंचन करा चुके हैं। इसके अलावा डा. राकेश भट्ट द्वारा द्रोपदी चीर हरण को गढ़वाली में द्रोपदा की लाज नाटिका के रूप में लिखा गया है। केदारघाटी के प्रसिद्ध रंगकर्मियों में लखपत राणा, वचन सिंह रावत, नरेंद्र सिंह, राम लाल, उपासना सेमवाल, ओम कला आदि हैं, जो पांडव लीला में अभिनय करते हैं।

मान्यता है कि द्वापर युग में जब कौरवों से जुए में हारने के बाद पांडवों को वनवास हुआ था तो तब उन्होंने उत्तराखंड के जंगलों में दिन बिताए थे। तब जौनसार क्षेत्र के राजा विराट ने उन्हें अपने राज्य में शरण दी। इसी कारण आज भी यहां के लोग पांडवों की पूजा-अर्चना करते हैं। पांडवों का मध्य हिमालय स्थित केदारनाथ, बूढ़ाकेदार समेत मद्महेश्वर, तुंगनाथ, रुद्रनाथ और कल्पेश्वर से भी संबंध रहा है।

पांडव नृत्य केदारघाटी की परंपरा व विरासत के रूप में है। पांडवों का इस क्षेत्र से सीधा संबंध रहा है, जो पुराणों में भी वर्णित है। यहां पांडव नृत्य के साथ महाभारत युद्ध में अपनाई गई युद्ध विधाओं चक्रव्यूह, मकरव्यूह आदि का मंचन विशेष तौर पर किया जाता है। गांवों में प्रत्येक वर्ष या तीसरे, पांचवें और सातवें वर्ष में यह आयोजन किया जाता है।